आग जलती रहे
एक तीखी आँच ने इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ, हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा, फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छुने चली, हर उस हवा का आँचल छुआ
प्रहर कोई भी नहीं बीता अछुता
आग के संपर्क से, दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा, परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर, यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ, यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता, छानता आकाश आह! कैसा कठिन
... कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे, आग केवल भाग!
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।
(Dushyant Kumar)
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ऐतराज़ होता है, मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे, और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में, आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा, मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
ज़िंदगानी का कोई मक़सद
ज़िंदगानी का कोई
मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है
राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है
आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
हुस्न में अब जज़्बा-ए-अमज़द नहीं है
पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
रास्तों में एक भी बरगद नहीं है
मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
सिर्फ़ आमद-रफ़्त ही ज़ायद नहीं है
इस चमन को देख कर किसने कहा था
एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है